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मन की चंचलता

विद्रोही विचार
विद्रोही विचार
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मन की चंचलता —-हम सभी जानते हैं कि मन बहुत ही चंचल है । क्षण – क्षण बदलता रहता है । मन बदलता रहता है तो बुद्दि भी स्थिर नहीं रहता इसलिए कहा गया है कि शरीर के विकास के साथ –साथ मन के विकास पर भी ध्यान देना आवश्यक है । मन पर जिनका नियंत्रण है , उनका नैतिक विकास भी उन्नत है , वे अच्छे कर्म में प्रवृत रहते हैं , लेकिन जिनका मन नियंत्रित नहीं है उनकी बुद्धि भी भ्रष्ट रहती है और कर्म निश्चित रूप से हितदायक नहीं होता ।
मन चंचल है मैं आपको निवेदन करना चाहता हूं, मन निश्चित ही चंचल है, लेकिन मन की चंचलता बुरी बात नहीं है। मन की चंचलता उसके जीवंत होने का प्रमाण है। जहां जीवन है, वहां गति है; जहां जीवन नहीं है, जड़ता है, वहां कोई गति नहीं है। मन की चंचलता आपके जीवित होने का लक्षण है, चंचलता रोक लेना ही कोई अर्थ की बात नहीं है। चंचलता रुक जाना ही कोई बड़ी गहरी खोज नहीं है। और चंचलता को रोकने के जितने अभ्यास हैं, वे सब मनुष्य की बुद्धिमत्ता को, उसकी विज़डम को, उसकी इंटेलिजेंस को, उसकी समझ, उसकी अडरस्टैंडिंग को, सबको क्षीण करते हैं, कम करते हैं। जड़ मस्तिष्क मेधावी नहीं रह जाता।गीता के छठवें अध्याय में अर्जुन ने भगवान कृष्ण से पूछा है- हे भगवान, मन बड़ा चंचल औऱ मथ देने वाला है। इसे वश में करना मानो वायु को वश में करने जैसा है। यानी जैसे हवा को वश में नहीं किया जा सकता, वैसे ही मन को वश में करना दुष्कर है। भगवान कृष्ण ने कहा- हां अर्जुन, मन को रोकना कठिन है। लेकिन अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसे वश में किया जा सकता है। अभ्यास कैसा? इसी छठवें अध्याय में ही भगवान ने कहा है- मन जहां, जहां जाए, उसे रोक कर बार- बार भगवान में लगाना। इसे कुछ संत अभ्यास योग भी कहते हैं। लेकिन यह कैसे संभव है? यह तभी संभव होगा जब मन पर आप पैनी नजर रखें। आप ध्यान कर रहे हैं और मन को भी देख रहे हैं। हां, यह भगवान में लगा है। अचानक यह आपको चकमा देता है और सांसारिक प्रपंच में चला जाता है। चूंकि आप मन के प्रति सजग और सचेत हैं, इसलिए इसे फिर भगवान के पास खींच लाइए। इसमें ऊबने से काम नहीं चलेगा। मन की चालाकियां आपको पकड़नी पड़ेंगी। आप कहेंगे, मन तो मेरा है। यह चालाकी कैसे करता है? जी हां, मन बहुत चालाक है और अगर यह आपके वश में होता तो फिर चिंता ही क्या थी। तब तो आप जो कहते वही करता। लेकिन यह मन तो किसी न किसी इंद्रिय के माध्यम से आनंद चाहता है। मन खुद ही इंद्रिय है। मन अगर वश में हो तो आप मुक्त हो जाते हैं। लेकिन अगर वश में नहीं हैं तो आप इसके गुलाम हो जाते हैं औऱ यही बंधन है। इसी से मुक्त होने के लिए तो साधक छटपटाता है, भगवान से प्रार्थना करता है, जप और ध्यान करता है। वह लगातार भगवान से योग चाहता है। भगवान से हमारा जब तक वियोग है तब तक दुख और पीड़ा है, तनाव और तकलीफ है। लेकिन ज्योंही योग हो गया, बस फिर आपको कोई चिंता नहीं। आपकी हर परेशानी हल होती जाएगी। जो परेशानी पहाड़ लग रही है, वह मामूली लगने लगेगी।आलस्य को भगाने के लिए परिश्रम, उत्साह, स्फूर्ति और तत्परता के विचार सहायक हैं। ऐसे ही कामुकता को दूर करने के लिए ब्रह्मचर्य के विचार, मातृभावना, पवित्रता एवं संयम के विचार, विकारों के परिणाम के विचार करना मददरूप बनता है। क्रोध को भगाना हो तो शांति, प्रेम, क्षमा, मैत्री, सहानुभूति, सज्जनता, उदारता एवं आत्मभाव के विचार सहायक हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, निराशा-हताशा, आलस्य आदि आत्मसुख को लूटने वाले विकार हैं। विकारों की जगह पर निर्विकारता ले आओ। आपका जीवन सुखमय हो जायेगा, आनंदमय हो जायेगा, मधुमय हो जायेगा।………………
लेखक – उत्तम जैन विद्रोही
सूरत
uttamvidrohi121@gmail.com

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