में एक दिन रात्री के दुसरे प्रहर यानी करीब एक बजे में कुछ विचारो में खोया हुआ था नींद नही आ रही थी तो मन को शांत व् एकाग्रचित करने के लिए एक पुस्तक पढने बेठ गया पुस्तक हाथ में लगी रूस में एक बहुत बड़े लेखक इतने बड़े कि सारी दुनिया उन्हें जानती है। उनका नाम था लियो टॉल्स्टॉय, पर हमारे देश में उन्हें महर्षि टॉल्स्टॉय कहते है। उन्होंने बहुत-सी किताबें लिखी है। इन किताबों में बड़ी अच्छी-अच्छी बातें है। उनकी कहानियों का तो कहना ही क्या! एक-से एक बढ़िया है। उन्हें पढ़ते-पढ़ते जी नहीं भरता। इन्हीं टॉल्स्टॉय की एक कहानी है-‘आदमी को कितनी जमीन चाहिए.?’ इस कहानी में उन्होंने यह नहीं बताया कि हर आदमी को अपनी गुज़र-बसर कें लिए किनती ज़मीन की जरूरत है। उन्होनें तो दूसरी ही बात कहीं है। वह कहते हैं कि आदमी ज्यादा-से-ज्यादा जमीन पाने के लिए कोशिश करता है, उसके लिए हैरान होता है, भाग-दौड़ करता है, पर आखिर में कितनी जमीन उसके काम आती है? कुल छ:फुट, जिसमें वह हमेशा के लिए सो जाता है। यों कहने को यह कहानी है, पर इसमें दो बातें बड़े पते की कही गयी थी । पहली यह कि आदमी की इच्छाऍं, कभी पूरी नही होतीं। जैसे-जैसे आदमी उनका गुलाम बनता जाता है, वे और बढ़ती जाती हैं। दूसरे, आदमी आपाधापी करता है, भटकता है, पर अन्त में उसके साथ कुछ भी नहीं जाता। आपको शायद मालूम न हो, यह कहानी गांधीजी को इतनी पसन्द आयी थी कि उन्होनें इसका गुजराती में अनुवाद किया। हजारों कापियॉँ छपीं और लोगों के हाथों में पहुँचीं। धरती के लालच में भागते-भागते जब आदमी मरता है तो कहानी पढ़ने वालों की ऑंखे गीली हो आती है। उनका दिल कह उठता है-‘ऐसा धन किस काम का! अपनी इस कहानी में टॉल्सटॉय ने जो बात कही है, ठीक वहीं बात हमारे साधु-सन्त, और त्यागी-महात्मा सदा से कहते आये है। उन्होने कहा है कि यह दुनिया एक माया-जाल है। जो इसमें फँसा कि फिर निकल नहीं पाता। लक्ष्मी यानी धन-दौलत को उन्होंने चंचला माना है। वे कहते हैं, “पैसा किसी के पास नहीं टिकता। जो आज राजा है, वही कल को भिखारी बन जाता है। और भिखारी कब रजा बन जाए ! आदमी इस दुनिया में खाली हाथ आता है, खाली हाथ जाता है। किसी ने कहा है —-
आया था यहॉँ सिकन्दर, दुनिया से ले गया क्या?
थे दोनों हाथ खाली, बाहर कफ़न से निकले।
संत कबीर ने यही बात दूसरे ढ़ंग से कही है:…..
कबीर सो धन संचिये, जो आगे कूँ होइ।
सीस चढ़ाये पोटली, जात न देखा कोई॥
किसी अज्ञात कवी की लाइन जो बचपन से मुह पर है…
सब ठाठ पड़ा रह जायेगा, जब लाद चलेगा बंजारा !!
आप कहंगे, “वाह जी वाह, मेने तो इतनी बातें कह डालीं। पर मुज्गे मालूम है आप सोचते होंगे कि बिना धन के किसका काम चलता है? साधु-सन्तों की बात छोड़ दीजिए, लेकिन जिसके घर-बार है, उसे खाने को अन्न चाहिए, पहनने को कपड़े और रहने को मकान चाहिए। और, आप क्या जानते नहीं, जिसके पास पैसा है, उसी को लोग इज्जत करते हैं, गरीब को कोई नहीं पूछता।”आपकी बात में सचाई है, पर एक बात बताइए—आप स्वयं सोचे की जीने के लिए खाते हो या खाने के लिए जीते हो तो आपका निसंदेह जबाव होगा जीने के लिए खाते हो ! जब आदमी जीने के लिए खाता है, तब उसके जीवन को कोई उद्देश्य धन कमाना नहीं हो सकता। धन कमाने का मतलब होता है पेट के लिए जीना; और जो पेट के लिए जीता है, उसका पेट कभी नहीं भरता। आदमी तिजोरी में भरी जगह को नहीं देखता। उसकी निगाह खाली जगह पर रहती है। इसी को ‘निन्यानवे का फेर’ कहते हैं। हममें से ज्य़ादातर लोग ऐसे ही चक्कर में पड़े है। हम यह भूल जाते है कि इस चक्कर में कहीं सुख है तो वह नकली है। सुख से अधिक दु:ख है। असल में पैसा अपने-आपमें बुरा नहीं है। बुरा है उसका मोह। बुरा है उसका संग्रह। रोज़ी-पाने का अधिकार सबकों हैं, पर पैसा जोड़कर रखने का अधिकार किसी को भी नहीं है। आचार्य विनोवा ने बड़ी सुन्दरता से यह बात कही है, “धन को धारण करने पर वह निधन (मृत्यु) का कारण बन जाता है। इसलिए धन को ‘द्रव्य’ बनना चाहिए। जब धन बहने लगता है, तभी वह द्रव्य बनता है। द्रव्य बनने पर धन धान्य बन जाता हे। “सच्ची दौलत सोना-चॉँदी नहीं, बल्कि स्वयं मनुष्य ही है। धन की खोज धरती के भीतर नहीं, मनुष्य के हृदय में ही करनी है। जिस समाज और देश के पास इंसान की दौलत है, उसका मुकाबला कौन कर सकता है! किसी बुद्धिमान ने ठीक ही लिखा है, “जिसके पास केवल धन है और संतोष नही उससे बढ़कर ग़रीब और कोई…….
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