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अंकलेश्वर-भरुच की पूण्य धरा पर दृढ़ मनोबल के साथ जसोल की सुश्राविका श्रीमती लेहरादेवी चौपड़ा का संथारा व्रत सम्पन्न

विद्रोही विचार
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santhara83 वर्ष की उम्र में ललकारा मौत को–खुली चुनोती देकर मौत को आमन्त्रण देना हर किसी का काम नही हे, ऐसा साहस व जज्बा कोई विरला एंव शूरवीर ही दिखा सकता हैं, आश्चर्य यह हैं कि असम्भव को सम्भव कर दिखाया 83 वर्ष की वयोवृद्ध अवस्था में एक धार्मिक, आध्यात्मिक एंव जप-तप की अकूत सम्पदा संजोई साहसी तपस्विनी महिला ने, हिमालय सा अडिग एंव दृढ़ मनोबल, आत्म कल्याण की लक्षित मन्ज़िल, देव गुरु एंव धर्म के प्रति अडिग आस्था व समर्पण तथा सद संस्कारों के प्रबल खजाने से लबालब श्रीमती लेहरां देवी कंकु चोपड़ा का नाम सचमूच में महा तपस्विनी के रूप में भी दर्ज हो जाए तो भी कोई अतिशयोक्ति नही होगी। पूण्य भूमि जसोल की जांबाज बेटी एंव बहु श्रीमती लेहरां देवी कंकु चोपड़ा ने जीवन के अंतिम पड़ाव के दौर कहे जाने वाली उम्र मे मौत रूपी लहरों को भी चुनोती दे डाली।

सिमन्धर स्वामीजी के दर पर जाना मेरा लक्ष्य– हम इस संथारे की पृष्ठभूमि पर नजर डालें तो विदित होता हैं कि करीब तीन-साढ़े तीन माह पूर्व जब लेहरां देवी अस्वस्थ हुई, तो उन्हें डॉक्टरी जाँच हेतु अंकलेश्वर-सूरत के विभिन्न अस्पतालों में भर्ती कराया गया, जहां उनका समुचित उपचार हुआ, बेहोशी के इंजेक्शन के पश्चात जब उनको होश आया और वे स्वस्थ होकर पुनः अंकलेश्वर स्थित अपने निवास पहुंची तो उन्होंने आते ही परिवार जनो के आश्चर्य चकित करने वाली दास्ताँ सुनाई कि में बेहोशी की अवस्था में ऊपर आगामी काल के तीर्थंकर श्री सिमन्धर स्वामी जी के दर पर जाकर वापस लौटी हूँ, मुझे सिमन्धर स्वामीजी की और से निर्देश मिला कि आपको अपनी लक्षित मन्ज़िल को पाने हेतु कठोर से कठोर तपस्या करनी पड़ेगी, अभी आपके लिए यहां जगह नही हैं, तथा इस कसोटी पर आपको और भी खरा उतरना हैं, अतः पहले तपस्या की इस अर्हता को पूर्ण करें, मुझे इसी निर्देश के साथ वहां से वापस भेज दिया गया, यही वजह हैं कि गम्भीर रूप से अस्वस्थ होने के बावजूद तथा मौत के मुंह से में स्वस्थ होकर वापस लौटी हूँ।
संथारा व्रत का पथ ही मेरी लक्षित मन्ज़िल – अब मेने ये दृढ़ निश्चय कर दिया हैं, कि अब ना तो में किसी भी डॉक्टर के पास स्वास्थ्य की जाँच कराउंगी और ना ही किसी प्रकार की दवाई ग्रहण करूंगी,मेरा अब एक ही लक्ष्य हैं, एंव अब मेरी एक ही मन्ज़िल हैं, और वो हे, सिर्फ और सिर्फ आत्म कल्याण की, पूर्ण रूपेण जप-तप की, अतः में आज से अन्न ग्रहण न करने का संकल्प लेकर तपस्या का व्रत लेती हूँ, और मेरी इस तपस्या का गन्तव्य हे संथारा, एंव इस संथारा-संलेखना के व्रत के माध्यम से में सिमन्धर स्वामी जी के द्वार पहुंचुंगी, श्रीमती लेहरां देवी ने अपने इस मकसद से सर्व प्रथम अंकलेश्वर में मौजूद अपने 83 वर्षीय पतिदेव श्री लक्ष्मण दास जी चोपड़ा को तथा फिर समस्त परिवार जनों को अवगत कराया, लेकिन श्रीमती लेहरांदेवी के इस इरादे से उनके पतिदेव कत्तई सहमत नही थे, और यह लाज़मी भी था कि जिन्होंने अपने दाम्पत्य जीवन के 67 वर्ष साथ साथ-साथ गुजारे हो, और सुख- दुःख में हमसफ़र एंव एक-दूसरे के पूरक रहे हो, इन हालातों में भला कोई सहजता से बिछुड़ने हेतु कैसे तैयार हो जाएँ? लेकिन आत्म कल्याण के रथ पर सवार व अडिग इरादों की धनी तपस्विनी लेहरां देवी ने अपनी तप यात्रा मन ही मन में प्रारम्भ कर डाली थी, उन्हें अपने फोलादी एंव दृढ़ निश्चय के आधार पर पूरा भरोसा था कि परिवारजन आज नही तो कल अपनी सहमति प्रकट कर ही देंगे, आखिर जहां चाह वहां राह की तर्ज पर तपश्चया के 11 वें दिन उनके पति देव श्री लक्ष्मण दास जी चौपड़ा की “ना” “हाँ” में परिवर्तित हो गई, तथा सभी परिवार जन तपस्विनी श्रीमती लेहरां देवी के अटल इरादों के आगे नत मष्तिष्क हो गए, और संथारा-सलेंखना व्रत स्वीकारने हेतु उन्होंने अपनी स्वीकृति सहज एंव सरल भावों के साथ प्रदान कर दी,
11 दिन की तपस्या एंव 64 दिन की तेविहार संलेखना तथा एंव कुछ घण्टो का चोविहार संथारा 23 अक्टूबर को सम्पन्न,
परिवार जनो की सहमति के बल पर श्रीमती लेहरां देवी ने 11 दिन की तपस्या पूर्ण कर 12 वें दिन से संथारा-संलेखना का व्रत स्वीकार कर दिया, संथारा-संलेखना व्रत का पच्चखान आचार्य श्री महाश्रमण जी के निर्देश पर उनकी आज्ञानुवर्ती शिष्या समणी परिमल प्रज्ञा जी व उनकी सहवृति शिष्या गौतम प्रज्ञा जी आदि ने अंकलेश्वर पहुंच कर कराया, उल्लेखनीय हैं कि श्रावक के तीन मनोरथों में से एक मनोरथ यह भी हैं कि “वह मंगल बेला कब आएगी कि जब में अंतिम समय संलेखना व अनशन (संथारा) कर, मरण की इच्छा न करते हुए समाधि मरण को प्राप्त करुंगा” ज्ञात रहे कि संथारा-संलेखना के व्रत की यात्रा में रत रहते हुए श्रीमती लेहरां देवी का मनोबल इतना दृढ़ एंव प्रबल था कि कभी भी यह अहसास नही हो पाता था कि वे इतनी दीर्घ तपस्या में लीन हैं, एक भी दाना अन्न का ग्रहण किए बिना और महज पक्के पानी के सहारे उन्होंने 11 दिन की तपस्या एंव 65 दिन का तेविहार संलेखना तथा 6 घण्टा 26 मिनिट का चौविहार संथारा ग्रहण कर कुल 76 दिनों के तपस्या मिश्रित संथारे के साथ वे इस नश्वर एंव भौतिक संसार से विदा हो गई, यह उल्लेखनीय हैं कि तपस्विनी श्रीमती लहरोदेवी ने 11 दिनों की तपस्या के पश्चात जो तेविहार संथारा स्वीकारा था वो 22 अक्टूबर शाम को 8.51 बजे पूर्ण होकर चोविहार संथारे में परिवर्तित हो गया, तथा चोविहार संथारे की पूर्णाहुति 23 अक्टूबर को अल सुबह 3.17 बजे हुई, तपस्विनी लहरादेवी का कुल 76 दिन का तपस्या मिश्रित संथारा पूर्ण हुआ,
महा तपस्विनी का जीवन परिचय- मरुस्थल के रेगिस्तानी धोरो में स्थित ओद्योगिक नगर एंव माँ राणी भटियाणी की पावन धरा जसोल निवासी श्री आसुराम जी पटवारी की सपुत्री लेहरांदेवी अपने बचपन से ही धार्मिक संस्कारों की सम्पदा संजोई हुई थी, जसोल निवासी श्री लक्ष्मणदास जी चौपड़ा की धर्म पत्नि लेहरांदेवी का अधिकांश जीवन अपने गृह नगर जसोल एंव कर्मभूमि हिरियुर (कर्नाटका) में सम्पन्न हुआ, सुपुत्र स्व: श्री लक्ष्मीचन्द का युवा अवस्था में ही निधन हो गया था,अन्य पुत्र गौतमचन्द एंव मूलचन्द चौपड़ा तथा सुपुत्री हुलासी देवी (धर्मपत्नि श्री मांगीलाल जी बोकड़िया) की मातु श्री, तथा 6 सुपौत्रों एंव 3 सुपौत्रियों की दादी माँ व तीन प्रपौत्रों तथा तीन प्रपौत्रियों की पड़ दादी माँ एंव 2 दोहितों एंव एक दोहिती की नानी माँ श्रीमती लेहरांदेवी तथा उनके पतिदेव श्री लक्ष्मण दास चौपड़ा कुछ महीनो पूर्व गुजरात के ओद्योगिक शहर अंकलेश्वर में ONGC इकाई में बतौर उप महा प्रबन्धक के पद पर सेवारत अपने सुपुत्र श्री गौतमचन्द चौपड़ा तथा कलर-केमिकल के व्यवसाय में रत व रोटरी आदि अनेक सामाजिक संगठनो से जुड़े उनके युवा सुपौत्र श्री महावीर चौपड़ा की सार-सम्भाल करने पहुंचे हुए थे।
धर्म-अध्यात्म, जप-तप जीवन के अभिन्न अंग– जप-तप और धर्म आराधना आदि क्रियाएँ लेहरां देवी के जीवन की दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा रहे हैं, उनकी जीवन यात्रा में तपस्या की अनेक लम्बी श्रंखलाएं रही हैं, उन्होंने 1 मास-खमण, सावन-भादवा में एकांतर तप, 8 अट्ठाईयां, 17, 16, 12, 7, दिनों की तपस्याएं, 15 चोला (चार दिन की तपस्या) तथा 330 तेला व 350 बेला की तपस्या के अलावा एकासन, उपवास, बेला जैसी तो अगिनित तपस्याएं की हैं, 250 पच्चखाण, सामायिक, नवकारसी-पौरसी जैसे व्रत तो उनके जीवन के अभिन्न अंग रहे हैं, एक दृष्टि से त्यागमय व अध्यात्म युक्त ही उनकी दिनचर्या रही हैं, उन्होंने अपने जीवन में तेरापंथ धर्म संघ के आचार्य श्री तुलसी, आचार्य श्री महाप्रज्ञ व आचार्य श्री महाश्रमण के जसोल में चातुर्मास, मर्यादा महोत्सव, वृहद दीक्षा महोत्सव आदि के विभिन्न प्रसंगो निमित पदार्पण पर सभी आचार्यों के सन्निधि में भरपुर धर्म-आराधना एंव सेवा की, यहां तक वे चाहे हिरियुर, बेंगलोर या फिर अंकलेश्वर या फिर गृह नगर जसोल रही वे सदैव धर्म-अध्यात्म तथा जप-तप में लीन रही, अपने तप-संलेखना-संथारा यात्रा के अंतिम दिवस भी वे पूर्ण चेतन अवस्था में थी, वे परिचित आगुन्तक को अविलम्ब पहचान लेती थी, एंव सांकेतिक भाषा में वे प्रत्युत्तर भी दे देती थी, वे अगर अपने को अस्वस्थता की स्थिति में पाती भी थी तो भी वे अपने चेहरे पर तनिक भी झलकने नही देती, सम्भवत वे यही चिन्तन कर रही होगी कि जब मेरी मन्ज़िल व मेरा लक्ष्य ही इस भौतिक एंव मायावी दुनिया से विदा लेना हैं तो फिर कैसी पीड़ा व कैसी वेदना ? यह भी ध्यान रहें कि तप में उनका शरीर भले ही कमजोर हो गया था, लेकिन वे मौत को गले लगाने का पूर्ण माद्दा एंव जज्बा रखे हुए थी , उनके चेहरे पर कहीं भी भय या घबराहट के चिन्ह महसूस नही होते थे, उन्होंने मौत को हंसते-हंसते आमन्त्रण ही नही दिया बल्कि चुनोती देकर संथारा स्वीकारा था, और पूर्ण चेतन अवस्था में इस कँटीली राह को चुना था, विशेष व उल्लेखनीय बिन्दु यह भी हैं कि दक्षिण गुजरात स्थित सूरत महानगर के समीप ओद्योगिक नगर अंकलेश्वर व भरुच शहर के सम्पुर्ण जैन समुदाय के इतिहास में सम्भवत यह पहला संथारा हैं, हालाँकि गुजरात में सूरत व अहमदाबाद जैसे शहरों में अतीत में अनेक संथारा वर्ती हुए हैं, अंकलेश्वर में संख्या की दृष्टि से लघु रूप में जैन समुदाय सुश्राविक लेहरां देवी के संथारे को अद्वितीय एंव अद्भुत संजोग मान रहा हैं, कि ऐसी तपस्विनी ने यहां संथारा व्रत को पूर्ण कर इस धरा के गौरव में अभिवृद्धि कर डाली,
अतीत में भी हुए अनेक संथारे जसोल की पूण्य धरा पर- यह भी उल्लेखनीय हैं कि जसोल नगर की अनेक बेटियों व बहुओं ने अतीत में भी संथारे स्वीकारे हैं, और सभी के सभी संथारे क्रमश दिर्घ अवधि के रहे हैं, जिसमे झमकुदेवी (उर्फ़ मीठी मां) धर्म पत्नि श्री मलुकचन्द जी मांडोतर, धन्नी देवी धर्म पत्नि श्री उकचन्द जी बुरड़ (मुनि श्री जिनेश कुमार जी की संसार पक्षीय मातुश्री) रमकुदेवी धर्मपत्नि श्री हुक्मीचन्द जी मांडोतर (संथारे की स्थिति में दीक्षा ग्रहण कर जसोल में इतिहास रचा) मथुरादेवी धर्मपत्नि श्री धींगड़मल जी तातेड़ (भाटावाला) भंवरी देवी धर्मपत्नि श्री चम्पालाल जी संकलेचा (नगरवाला) का समावेश हैं, ये भी उल्लेखनीय हैं कि सभी की सभी संथारावर्ती सुश्राविकाएं तेरापंथ धर्म संघ से जुडी हुई थी, यह भी उल्लेखनीय हैं कि संथारा ग्रहण करने वाली सुश्राविकाएं रमकुदेवी व झमकुदेवी दोनों ही पड़ोसने थी, और दोनों की दोनों मांडोतर परिवारों से थी, जसोल कस्बे में जब प्रवेश करते हैं तो श्री कन्हैयालाल जी के मन्दिर के समीप एक चौक का नामकरण तक संथारा ग्रहण करने वाली दोनों सुश्राविकाओं के नाम से ‘रमकु-झमकू चौक’ कर दिया गया हैं, सचमूच में जसवल (जसोल) की धरा उर्वरा हैं, जसोल नगर में जैनों की आबादी के तुलनात्मक रूप से प्रत्येक 10 परिवारों में एक-न-एक श्रावक-श्राविका दीक्षित होकर तेरापंथ धर्म संघ के गौरव में अभिवृद्धि की ही हैं, संथारों की श्रंखला में सम्भवत यह छट्ठा संथारा हैं, लगभग आधा दर्जन संथारे तथा तीन दर्जन के करीब दीक्षार्थियों की उर्वरा भूमि जसोल नगर को नमन…..संथारा साधिका के तप प्रयासों को शत-शत नमन-

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