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नारी शक्ति के अवदान ओर पीड़ा – उत्तम विद्रोही की जुबानी

विद्रोही विचार
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nariभारतीय उपासना में स्त्री तत्व की प्रधानता पुरुष से अधिक मानी गई है नारी शक्ति की चेतना का प्रतीक है। साथ ही यह प्रकृति की प्रमुख सहचरी भी है जो जड़ स्वरूप पुरुष को अपनी चेतना प्रकृति से आकृष्ट कर शिव और शक्ति का मिलन कराती है। साथ ही संसार की सार्थकता सिद्ध करती है। महिला शब्द में ही महानता, ममता, मृदुलता, मातृत्व और मानवता की कल्याणकारी प्रवृत्तियों का समावेश है । महिलाओं के कारण ही सृष्टि में सुख-शांति, सहृदयता, सहयोग के संस्कार से संस्कृति का उत्थान और उत्कर्ष हो रहा है । जीवन के हर क्षेत्र में महिलाएँ अपनी श्रेष्ठता-विशिष्टता पुरूषों से बढ़-चढ़कर सिद्ध प्रसिद्ध कर रही है । इसके बावजूद भी आज देश-विदेश में महिला उत्पीड़न का ग्राफ बढ़ता जा रहा है तरह-तरह की पीड़ा, हत्या और आत्महत्याओं का दौर थम नहीं रहा है । महिलाओं की सहजता, सहनशीलता और संकोच के दबाव को कमजोरी समझा जा रहा है, जबकि महिलाएँ पुरुषों से किसी तरह कमजोर नहीं है ।
पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं को पहले पाव की जूती समझा जाता था । खरीदी हुई कोई वस्तु समझकर उसे चाहे जब चाहे, कुचल-मसल दिया जाता रहा है । किन्तु जैसे-जैसे महिला जागृति बढ़ी मानवाधिकार की आवाज बुलंद हुई, संयुक्त राष्ट्र संघ, लोकसभा, विधानसभा और पंचायतों में महिलाओं को आंशिक प्राथमिकता दिए जाने के अनुसार हर क्षेत्र में पूर्ण आरक्षण दिए जाने में पुरूषों की आना-कानी, हीले-हवाले व बहानेबाजी रोड़ा बनी हुई है । राजनीति के क्षेत्र में भी महिलाओं को आगे बढ़ने में कई बार बाधाएँ उत्पन्न होती है । महिला सशक्तिकरण, कार्पोरेट क्षेत्र में महिलाओं द्वारा स्थापित कीर्तिमान यह सिद्ध करता है कि महिलाओं के बढ़ते बदलाव के कदम अब रोके नही जा सकते हैं । महिलाओं द्वारा ही देश को भ्रष्टाचारमुक्त किया जा सकता है ।आज हमे स्वीकार करना होगा महिलाओं को बाल्यकाल से ही अहसास करवाया जाता है कि वे लड़की हैं और उन्हें एक सीमित दायरे में ही कैद रहना है तथा जितनी उड़ान उनके माँ – बाप चाहें बस उतना ही उड़ना है । बाल्यकाल अभिभावकों के संरक्षण में उनके अनुसार ही गुजारना होता हैं ।
लडकियों को इतनी स्वतंत्रता अभी भी नहीं हैं कि वे अपने लिए स्वतंत्र निर्णय ले सकें । एक तरह से उन्हें हर निर्णय के लिए अभिभावकों का मुँह देखना पड़ता है और हर कदम आगे बढ़ाने के लिए उनकी सहमति लेनी पड़ती है । अभिभावक उदारवादी रवैये वाले हुए तो ठीक है कि लड़की अपने हित में सोच सकती हैं और कुछ कर सकती है, परन्तु इसका प्रतिशत अभी ज्यादा नहीं हैं । शहरों और महानगरों को छोड दें तो गाँवो में स्थिति अभी भी ज्यादा नहीं सुधरी है । लड़की को साधारण पढा-लिखा कर कम उम्र में ही उनका ब्याह रचा दिया जाता है । गाँवों में अभी भी लड़की की सहमति या असहमति से कोई मतलब नही होता । शहरों में भी कुछ ही परिवार उन्नत विचारों और मानसिकता वाले है, जो एक सीमा तक पढ़ाई-लिखाई की छूट और उन्हें नौकरी करने की आजादी देते है । अभी भी शहर से बाहर जाकर नौकरी बहुत कम लडकियाँ कर पाती हैं
बचपन से ही लड़कियों का आत्मविश्वास और मनोबल क्षीण या कमजोर कर दिया जाता है कि वे कोई ठोस निर्णय नहीं ले पाती तथा दब्बू प्रवृत्ति की बन जाती है । यह प्रारम्भिक कमजोरी मन पर सदैव हावी रहती है यदि ससुराल पक्ष और पति उदारवादी दृष्टिकोण के हुए तो ठीक, वरना यहाँ भी उसे परतंत्रता का घूंट पीना पड़ता है । ससुराल वालों के अनुसार ही बहू को चलना पड़ता हैं । वरना जीवन दूभर हो जाता है । वैसे भी प्रारंभ से मिली शिक्षा और व्यवहार उसे अपने आकाश गढ़ने नहीं देते, जिसमें वह मनचाही कल्पनाओं के इन्द्रधनुष रच सकें । जीवन यहाँ भी औरों के बस में ही होता है जिसे वह एक समझौते के साथ अपने रिश्ते-नातों के धागों को सहेजते हुए जीती है । विरोध केवल कलह और अशांति को जन्म देता हैं, इसलिए वह साहस नहीं कर पाती कि अपने हित में निर्णय आसानी से ले सके । यहाँ महिलाओं की कमजोरी साबित होती है कि चाहते हुए भी मनचाहे क्षेत्र में आगे नही बढ़ सकती अपवादस्वरूप कुछ साहस कर पाती है परन्तु उसका प्रतिशत बहुत कम है, क्योंकि प्रवृति उनकी प्रारम्भ से ही ऐसी बना दी जाती है कि वे विरोध कर नहीं सके । इसलिए महिलाओं को दोष नहीं दिया जा सकता है कि वे कमजोर क्यों हैं? बुजुर्ग अवस्था में भी महिलाओं को सुकून नही मिल पाता  यहाँ भी उन्हें समझौता करना पड़ता है और दब कर रहना पड़ता है । कई बार तो अपमान सहने तक की नौबत आ जाती है । उस अवस्था में जबकि आर्थिक आधार इतना सुदृढ़ नहीं हो । कुछ भी करने के लिए बेटे या पति का मुँह देखना पड़ता है । अगर अपने हिसाब से जीना चाहें तो नहीं जी सकती हैं । महिलाएँ अपने खातें में परतंत्रता की जंजीरें ही लिखाकर लाई हैं, जिन्हें काटना उनके लिए आसान या संभव नहीं है । हर अवस्था में उन्हें कमजोर बनाया जाता है । इसलिए यह प्रश्न बेमानी सा है कि महिलाओं में कमजोरी क्यों?
इसी प्रकार एक लड़की को किसी भी क्षेत्र में जाने से पहले जूझना है और लोगों के व्यंग्य भी सहने पड़ते हैं, परन्तु जब सफलता मिलती है, तो सब सिर आँखों पर बिठाते हैं । यही महिला जीवन की त्रासदी है क्योंकि सभी लड़कियाँ दृढ़ता से अपने हक में निर्णय नहीं ले पाती । पुलिस विभाग में महिलाओं की नौकरी अच्छी नहीं मानी जाती थी, परन्तु सुश्री किरण बेदी ने जो साहस और क्षमता दिखाई कि वे मील का पत्थर बन गई तथा औरों को भी उन्होंने प्रेरणा दी कि महिलाएँ भी सब कुछ करने में समर्थ है । वैसे तो महिला सशक्तिकरण की बातें तो बहुत हो रही हैं परन्तु बदलाव इतनी जल्दी और आसानी से नहीं होने वाला है, जब तक कि यह जागृति की लहर हर तरफ न फैल जाए ।अभी तो अँगुली पर गिने जाने वाले नाम ही हैं, जो महिलाओं की शक्ति का प्रतीक है और उनके सामर्थ्य को दर्शाते हैं । बेटों की तरह बेटियों का भी दुनिया में आगमन (बैंड बाजे बजवाकर) और पालन-पोषण हो तो निश्चित ही वे अपनी सफलता की बानगी दिखला सकती है ।
महिलाओं को जेवर, कपड़ों का शौक होता है, जो उनकी कमजोरी नहीं, अपितु रूचियाँ हैं, वही कई बार स्त्रियों में ईर्ष्या प्रवृति (किसी में कम, किसी में ज्यादा) भी देखी गई है जो पुरूषों में भी पाई जाती है । देखा-देखी या होड़ा-होड़ी की भावना भी सभी में होती है । जो स्वभाव के अनुसार कम या ज्यादा होती है, इसलिए महिलाओं को सिर्फ कमजोरी का पुतला ही न समझें, बल्कि उनकी क्षमता, सामर्थ्य व परिस्थितियों को भी समझें ।
जहाँ तक भ्रूण हत्या का सवाल है कोई भी महिला अपने अंश को आसानी से जाया नही करेंगी । परन्तु पारिवारिक दबाव और महिलाओं की सामाजिक स्थिति देख वे अपने कलेजे पर पत्थर रखकर ऐसा निर्णय लेने हेतु कमजोर पड जाती है । इसे कमजोरी नहीं कहा जाएगा, क्योंकि वे स्वयं महिला होने के नाते बचपन से पाबंदियों और पक्षपात (बेटे व बेटी में) के दौर से गुजरी है तथा वे नहीं चाहती कि उनकी बेटी को ऐसे त्रासदी भरे दौर से गुजरना पड़े, इसलिए वे ऐसे दुःखद निर्णय ले लेती है । आगे जाकर दहेज प्रथा उनके जीवन का नासूर साबित होती है तथा समाज या जाति के दबाव में कम योग्य वर से ब्याह दी जाती है या दहेज के लालची ऐसे कठोर लोगों का शिकार बन जाती है, ताकि कोई अबला जीवन की कहानी नहीं दोहराई जा सके । इसे कमजोरी नहीं अपितु मजबूरी या विवशता कहा जाएगा कि वे अपना ही अंश गर्भ में ही समाप्त कर दें तो ज्यादा अच्छा रहेगा । जब तक ऐसी मानसिकता समाज की रहेगी, यह कमजोरी या विवशता रहेगी ।
लेखक – उत्तम जैन विद्रोही

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